कूर्म प्रकटोत्सव पर की गई विशेष पूजा अर्चना
समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों से संसार सुखी हुआ।
धर्म शास्त्रों के अनुसार संसार की रक्षा के लिए जगत के पालनहार भगवान विष्णु ने 24 अवतार धारण किए। इनमें से प्रथम अवतार मत्स्य, द्वितीय कच्छप, तृतीय वराह और चतुर्थ नरसिंह अवतार है! इसी तरह उन्होंने और भी अवतार धारण किया, इन सभी की अपनी अलग-अलग विशेषताएं और कारण हैं किंतु इनके पश्चात भी हरि का अवतार किस हेतु से हुआ यह निश्चित रूप से कोई नहीं बता सकता! श्री रामचरितमानस में लिखा है -हरि अवतार हेतु जेहि होई, इदमिथ्यं कहि जाइ न सोई। भगवान ने परिस्थिति एवं समय के अनुसार अलग-अलग स्वरूप धारण किया। जब राक्षसों ने वेदों की चोरी कर उसे समुद्र के नीचे छिपा दिया था तब भगवान ने मत्स्य स्वरूप धारण कर वेदों को प्राप्त कर जगत में उसका विस्तार किया। भगवान का द्वितीय अवतार कच्छप अवतार है वैशाख शुक्ल पक्ष पूर्णिमा को भगवान के कच्छप अवतार का जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर श्री दूधाधारी मठ तथा इससे संबंधित मठ मंदिरों में भगवान विष्णु के कच्छप अवतार की विशेष पूजा अर्चना की गई, भगवान का गंगा जल, पंचामृत, दुग्ध से अभिषेक कर पुष्प, पत्र, फल, अर्पित कर मिष्ठान का भोग लगाया गया और उनकी स्तुति की गई। कच्छप अवतार के विषय में अपने संदेश में श्री दूधाधारी मठ पीठाधीश्वर एवं राज्य गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष राजेश्री महन्त रामसुन्दर दास जी महाराज ने कहा कि -एक बार महर्षि दुर्वासा के श्राप से इंद्र देवता श्री हिन हो गए थे! इससे वे दुःखी होकर भगवान विष्णु के पास गए और उनसे प्रार्थना की। भगवान ने उन्हें समुद्र मंथन का निर्देश दिया देवताओं और राक्षसों ने मिलकर मंदराचल पर्वत से समुद्र का मंथन वासुकी नाग की सहायता से किया गया। पर्वत समुद्र में डूबने लगा तब भगवान ने विराट कच्छप का स्वरूप धारण कर पर्वत को आधार प्रदान किया। समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले जिसमें प्रथम प्रथम हलाहल जिसे शिवजी ने पान किया, दूसरा उच्चैश्रवा घोड़ा, तीसरा एरावत हाथी, चौथा कौस्तुभ मणि, पांचवा कामधेनु गाय, छठवां कल्पवृक्ष, सातवा लक्ष्मी जी इस तरह मंथन से प्राप्त 14 रत्नों से संसार सुखी हुआ । इंद्र को भी अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य प्राप्त हुए। भगवान श्री हरि के कच्छप अवतार की कथा श्रवण करने और पूजा अर्चना करने से मनुष्य को संसार की सभी भौतिक संसाधन एवं भगवान की भक्ति प्राप्त होती है। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में कहा है – न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः।। अर्थात मेरी उत्पत्ति को ना देवता लोग जानते हैं और ना महर्षि ही जानते हैं; क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूं। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।। मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का कारण हूं। और मुझसे ही सब जगत चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं। राजेश्री महन्त जी ने कच्छप जन्मोत्सव की शुभकामनाओं के साथ बधाई देते हुए संपूर्ण विश्व की मंगलमय कामनाएं किए हैं।