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भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं पर सवालिया निशान लगातीं नई कोयला खदानें

नवीकरणीय ऊर्जा के व्यापक विस्तार के साथ-साथ, भारत अपने कोयला उत्पादन में भी भारी बढ़ोतरी कर रहा है। इस वजह से उसकी जलवायु प्रतिबद्धताओं पर संदेह पैदा हो रहा है।

भारत के पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव ने 9 दिसंबर को कॉप-28 के दौरान, उत्सर्जन कटौती में देश की उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए पेरिस समझौते के प्रति देश के “भरोसे और विश्वास” की पुष्टि की। लेकिन यह घोषणा महज तीन दिन पहले की गई एक अन्य घोषणा के उलट दिखाई देती है, जब कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा था कि भारत, जीवाश्म ईंधन के लिए उत्पादन बढ़ाने का इरादा रखता है।

दो हफ्ते बाद जोशी ने कोयला मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में कहा कि कोयला खदानों की नीलामी के सात चरण पूरे हो चुके हैं जबकि दो की प्रक्रिया चल रही है। इन चरणों के भीतर, 91 खदानों की सफलतापूर्वक नीलामी की गई है। इनकी लगभग 22.1 करोड़ टन की अधिकतम वार्षिक उत्पादन क्षमता है।

संलग्न दस्तावेज में जोशी कहते हैं: “कुल मिलाकर, घरेलू कोयले की मांग को पूरा करने के लिए बड़ी संख्या में खदानों को लेकर काम चल रहा है।”

वर्ष 2022 में अपडेट किए गए अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) में, भारत ने तीन प्रमुख वादे किए हैं: 2030 तक 2005 के स्तर के आधार पर अपनी कार्बन उत्सर्जन तीव्रता (बिजली की प्रति यूनिट कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन) में 45 प्रतिशत की कमी; 2030 तक स्थापित बिजली का 50 फीसदी गैर-जीवाश्म-ईंधन स्रोतों से आएगा; और 2070 तक राष्ट्रीय कार्बन तटस्थता का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा।

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एनडीसी क्या हैं?

उसी दिन कॉप-28 में, भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) में अपना तीसरा “नेशनल कम्युनिकेशन” प्रस्तुत किया। इसके मुख्य निष्कर्षों में कहा गया है कि बढ़ती ऊर्जा मांग और समग्र विकास के अनुरूप, भारत के उत्सर्जन में वृद्धि होने की संभावना है। इसके अलावा, 2070 में नेट-जीरो उत्सर्जन के अनुमानित लक्ष्य तक पहुंचने की बात भी कही गई है।

लेकिन, 2022 तक, भारत का 65 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन कोयले से होता है, और भारत की कोयला खदानों और संयंत्रों का तेजी से विस्तार, भारत के महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने की राह को जटिल बना सकता है।

कोयला उत्पादन में वृद्धि

2015 के ऐतिहासिक पेरिस समझौते के बावजूद, जिसने दुनिया भर के देशों को कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए प्रतिबद्ध किया, भारत ने कोयले के उपयोग को कम करने की कोई आवश्यकता नहीं समझी है। यह इस तथ्य के बावजूद है कि कोयला (मुख्य रूप से चीन और भारत द्वारा) हाल के कार्बन उत्सर्जन का सबसे बड़ा कारण रहा है, जो 2021 में कुल का 40 फीसदी है। ऊर्जा आपूर्ति के मुख्य आधार के रूप में – तापीय ऊर्जा संयंत्र (कोयला, तेल और गैस) देश की कुल स्थापित बिजली का 56 फीसदी (239 गीगावॉट) आपूर्ति करते हैं – कोयला भारतीय ऊर्जा सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है। कोयले पर निर्भर रहने के बजाय घरेलू आपूर्ति को बढ़ावा देने के लिए, भारत ने अपनी कोयला खदानों का आक्रामक ढंग से विस्तार किया है।

अगस्त 2023 में संसद को एक लिखित उत्तर में कोयला मंत्री ने बताया कि “पिछले कुछ वर्षों में कोयला उत्पादन में बड़ी छलांग देखी गई है”। 2013 से 2014 तक भारतीय कोयला उत्पादन 56.5 करोड़ टन था; जो 2022 से 2023 तक 58 फीसदी बढ़कर 89.3 करोड़ टन हो गया है।

भारत की 2023 की राष्ट्रीय बिजली योजना के अनुसार, देश में 2026-2027 तक कोयले की घरेलू जरूरत अनुमानतः 86.64 मिलियन टन होगी, जो 2031-2032 तक बढ़कर 1.025 अरब टन हो जाएगी। 18 दिसंबर को कोयला मंत्री ने संसद को बताया कि घरेलू कोयला उत्पादन सालाना 6-7 फीसदी बढ़ने की उम्मीद है, और 2029-2030 तक लगभग 1.5 अरब टन तक पहुंच जाएगा।

क्या वन आवरण रामबाण है?

इंटरनेशनल लेजिस्लेटर नेटवर्क क्लाइमेट पार्लियामेंट के मुख्य नीति सलाहकार संजय कुमार से द् थर्ड पोल ने पूछा, क्या भारत में कोयला उत्पादन और खपत में बड़ी वृद्धि इसके एनडीसी से मेल नहीं खाता है।

भारत के पूर्व वन महानिदेशक, कुमार को दोनों उद्देश्यों के बीच कोई विरोधाभास नहीं दिखता। उनका मानना है कि भारत 2030 और 2070 के जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटा है, और ऊर्जा जरूरतों और जलवायु परिवर्तन के बीच जटिल संतुलन के लिए भारत के दृष्टिकोण को रणनीतिक अनुकूलन के रूप में देखना अधिक सटीक है।

कुमार कहते हैं, “यह एक सक्रिय दृष्टिकोण को दर्शाता है, क्योंकि राष्ट्र सक्रिय रूप से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों [और] विभिन्न क्षेत्रों और स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों की एक विस्तृत श्रृंखला में ऊर्जा दक्षता उपायों को अपना रहा है।” उन्होंने आगे कहा, भारत ने पिछले कुछ दशकों में अपने वन और वृक्ष आवरण को लगातार बढ़ाकर

“अपनी आर्थिक जरूरतों को अपनी पर्यावरणीय जिम्मेदारी के साथ संतुलित किया है” – यह उन कुछ देशों में से एक है, जहां ऐसा देखा गया है।

देश ने पिछले कुछ वर्षों में अन्य जलवायु-अनुकूल क्षेत्रों में अपनी साख बढ़ाने की कोशिश की है। कार्बन पृथक्करण के लिए वन आवरण का विस्तार प्रमुख नेट-जीरो रणनीतियों में से एक है, जिसे यूएनएफसीसीसी के लिए भारत के तीसरे नेशनल कम्युनिकेशन ने पहचाना है। कम्युनिकेशन में भारतीय वन सर्वेक्षण की 2021 की रिपोर्ट का हवाला देकर दावा किया गया है कि देश के वन क्षेत्र का विस्तार हुआ है।

हालांकि, भारत अपने जंगलों को कैसे मापता है, इस पर बारीकी से नजर डालने से कई मुद्दों का पता चला है। उदाहरण के लिए, वृक्षारोपण को वनों के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जिसकी शोधकर्ताओं ने जलवायु लक्ष्यों के अनुपालन को हासिल करने के लिए बनाई गई खामियों के रूप में आलोचना की है। इसके अलावा, जुलाई 2023 में भारत ने एक नया कानून पारित किया, जिससे कोयला खदानों सहित जंगलों को साफ करना आसान हो गया है।

पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में जमीनी शोध से पता चलता है कि सरकार द्वारा चित्रित गुलाबी तस्वीर के विपरीत, कमजोर रेगुलेशन और एनफोर्समेंट मैकेनिज्म, वनों की कटाई को तेजी से जारी रखने की अनुमति देते हैं।

जीवाश्म ईंधन की आवश्यकता

जलवायु परिवर्तन मंत्री ने कॉप-28 वाले बयान में कहा कि भारत ने “2005 और 2019 के बीच अपनी जीडीपी के बरक्स ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की तीव्रता को 33 फीसदी घटाया है”, और “गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोत के माध्यम से स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता का 40 फीसदी हासिल किया है।” इनका मतलब है कि भारत अपने एनडीसी को पूरा करने की राह पर है।

लेकिन उनका मतलब यह नहीं है कि भारत कार्बन तटस्थता के अपने 2070 लक्ष्यों को पूरा करने की राह पर है। पर्यावरण थिंक-टैंक एम्बर की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत छह जी-20 देशों (दुनिया की 20 सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं) में से एक है, जिसमें 2015 और 2022 के बीच प्रति व्यक्ति कोयला आधारित बिजली उत्सर्जन में वृद्धि हुई है, जिसमें सात वर्षों में 29 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। इसके अतिरिक्त, रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन की तरह, भारत “तेजी से बिजली की मांग में वृद्धि का अनुभव कर रहा है, जो हाल के वर्षों में बड़े पैमाने पर हुए नवीकरणीय विस्तार को भी पीछे छोड़ रहा है।”

हालांकि, यह ध्यान देने योग्य है कि इस वृद्धि के बावजूद, क्लाइमेट ट्रैकर 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, जी-20 देशों के बीच भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन सबसे कम था, और सभी जी-20 देशों के औसत के एक तिहाई से भी कम था।

वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट इंडिया के ऊर्जा कार्यक्रम का निर्देशन करने वाले भरत जयराज ने द् थर्ड वर्ल्ड से कहा, “[नेट-जीरो तक] पहुंचने के रास्ते में जटिलताएं होंगी, लेकिन भारत सरकार और निजी क्षेत्र सक्रिय रूप से उत्सर्जन को कम करने के लिए नई प्रौद्योगिकियों और नीतियों को अपना रहे हैं।”

भारतीय इस्पात उद्योग की हालिया उत्सर्जन-कटौती सफलता पर प्रकाश डालते हुए, जयराज ऐसी पहलों की प्रभावशीलता पर जोर देते हैं : “2070 लक्ष्यों की घोषणा के बाद से इस्पात उद्योग को न केवल अधिक स्टील का उत्पादन करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, बल्कि उत्सर्जन-कटौती रणनीतियों को अपने संचालन में लागू करने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया है।”

हालांकि, इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) के सितंबर 2023 के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में स्टील निर्माण, जो देश के कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 12 फीसदी है, में प्रति टन कच्चे स्टील (tCO2/tcs) की कार्बन तीव्रता 2.55 टन कार्बन डाइऑक्साइड है – जो वैश्विक औसत 1.85 (tCO2/tcs) से काफी अधिक है।

आईईईएफए का यह भी अनुमान है कि भारतीय इस्पात का कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन “2030 तक तेजी से दोगुना हो जाएगा”। विश्लेषण में कहा गया है कि हालांकि ग्रीन हाइड्रोजन तकनीक को अभी स्टील निर्माण की कार्बन तीव्रता को कम करने का एक विश्वसनीय तरीका माना जाता है, इसकी लागत का मतलब है कि यह विकल्प 2050 से पहले भारत के लिए पहुंच योग्य नहीं है।

जयराज कहते हैं, “जीवाश्म ईंधन अभी भी आवश्यक है। नवीकरणीय ऊर्जा आधारित अर्थव्यवस्था में परिवर्तन रातों-रात नहीं होगा।”

दीर्घकालिक सोच का वक्त

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे में प्रोफेसर तृप्ति मिश्रा, जो प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के अर्थशास्त्र में विशेषज्ञ हैं, का मानना है कि प्रति व्यक्ति कोयला ऊर्जा उत्सर्जन बढ़ने के बावजूद भारत अपने 2030 एनडीसी को पूरा करने की राह पर है। मिश्रा ने द् थर्ड पोल को बताया कि भारत ने अपनी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का विस्तार करने में अच्छी प्रगति की है, और इसके समग्र उत्सर्जन की कार्बन तीव्रता को कम करना कोई चुनौती नहीं है।

लेकिन अगर देश को 2070 तक नेट-जीरो हासिल करना है, तो भारत को कोयले से आगे बढ़ने के बारे में गंभीर होना चाहिए। वह कहती हैं कि कोयले को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की योजना – और इसके विवरण – महत्वपूर्ण हैं। वह आगे कहती हैं, “यह समग्र स्तर पर नहीं होना चाहिए; बल्कि, [कोयला संयंत्रों] को चरणबद्ध तरीके से ख़त्म करने की गुंजाइश और समय-सीमा की पहचान करने के लिए कुछ क्षेत्रीय स्तर की योजना की आवश्यकता है”।

मिश्रा कहती हैं, भारत के “महत्वाकांक्षी” अपडेटेड एनडीसी [शमन] और आर्थिक विकास आवश्यकताओं के बीच संतुलन सफल है। लेकिन वह कहती हैं कि सुधार की “काफी गुंजाइश” है, जिसमें जीवाश्म ईंधन परियोजनाओं के लिए वित्त को सीमित करने, स्वच्छ ऊर्जा के लिए अधिक बुनियादी ढांचे का समर्थन, नीतियों के बेहतर

कार्यान्वयन और कुछ खास क्षेत्रों के लिए अलग दृष्टिकोण की सिफारिश की गई है, जिसे जमीनी हकीकत से पर्याप्त रूप से निपटना होगा।

कोयले के वित्तपोषण के लिए कतार में बैंक
ऐसा लगता है कि कोयला उत्पादन विस्तार के लिए भारत के प्रयास में बैंक भी शामिल हो गए हैं। जुलाई 2022 में, देश के केंद्रीय बैंक, भारतीय रिजर्व बैंक ने जलवायु जोखिमों के प्रति बैंकों के एक्सपोजर पर एक डिस्कशन पेपर जारी किया। एक साल बाद, रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में दावा किया गया कि बैंक, कोयला खदान संचालन के लिए धन देने में अनिच्छुक हो रहे थे, और केवल एक बैंक – केरल स्थित फेडरल बैंक – उस समय कोयला खदानों को वित्त पोषित कर रहा था। यह भारत को कोयला निवेश से दूर करने के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार तंत्र बन सकता है।

फिर अक्टूबर 2023 में भारत के कोयला मंत्रालय द्वारा जारी एक नोट ने दर्शाया कि वह इस प्रवृत्ति को उलटने की कोशिश कर रहा था, जिससे पता चला कि उसने “भारत में वाणिज्यिक कोयला खदानों की फंडिंग” के लिए हितधारक परामर्श आयोजित किया था, जिसमें खदान मालिक और बैंक अधिकारी शामिल थे।

नोट में मंत्रालय का कहना है कि बैंक, कोयला खदानों को वित्तपोषित करने के इच्छुक हैं और उस प्रयास के लिए समर्पित शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। इसमें कहा गया है, “भारतीय स्टेट बैंक ने एक व्यावसायिक कोयला खदान के विकास के लिए वित्तीय सहायता दी है, और अन्य भी ऐसा करने की प्रक्रिया में हैं।”

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