
Delhi: दिल्ली में कांग्रेस के लिए एक अहम मौका था जब पार्टी ने 8 नवंबर को राजघाट से अपनी ‘दिल्ली न्याय यात्रा’ की शुरुआत की थी। यह यात्रा एक महीने तक चली और 7 दिसंबर को रोहिणी में समाप्त हुई। यात्रा के दौरान कांग्रेस ने दिल्ली की गलियों में जाकर लोगों से सीधे संपर्क किया, उनके मुद्दों को समझने की कोशिश की और यह जानने की कोशिश की कि क्या दिल्ली की राजनीति में पार्टी के लिए अब भी कोई संभावनाएं हैं।
हालांकि, कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं ने अपनी पूरी ताकत से इस यात्रा को सफल बनाने की कोशिश की, लेकिन इस यात्रा में सबसे बड़ी खामी यह रही कि पार्टी के सबसे बड़े चेहरे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, इस पूरी यात्रा से गायब रहे। यह सवाल उठाता है कि क्या कांग्रेस अपने सबसे प्रभावशाली नेताओं को इतने अहम मौके पर मैदान में उतारने से बच रही है?
राहुल और प्रियंका का गायब रहना: कांग्रेस की बड़ी चूक?
राहुल गांधी और प्रियंका गांधी, जो कांग्रेस के सबसे बड़े नेता हैं, दिल्ली में रहकर भी इस यात्रा से दूर रहे। उन्होंने संसद की कार्यवाही में भाग लिया और कुछ मुद्दों पर धरना-प्रदर्शन किए, लेकिन दिल्ली की न्याय यात्रा में शामिल नहीं हुए। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि बिना गांधी परिवार के, दिल्ली में कांग्रेस की वापसी संभव नहीं है। राहुल और प्रियंका के नेतृत्व में ही पार्टी को दिल्ली में राजनीतिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता है।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं की मान्यता है कि अगर दिल्ली की राजनीति को त्रिकोणीय (AAP, BJP, Congress) बनाने की है, तो गांधी परिवार को खुलकर सामने आना होगा। बावजूद इसके, पार्टी ने राहुल और प्रियंका को इस यात्रा में शामिल करने से परहेज किया। क्या यह कांग्रेस की राजनीतिक रणनीति का हिस्सा था या एक बड़ी चूक?
पार्टी की रणनीति पर सवाल
कांग्रेस के एक हिस्से में यह विचार है कि राहुल और प्रियंका को अब मैदान में नहीं उतारना चाहिए, ताकि उनकी नाकामी का ठीकरा उनके सिर पर न फेरे। पार्टी नहीं चाहती कि दिल्ली में संभावित कमजोर प्रदर्शन का जिम्मा गांधी परिवार पर पड़े। लेकिन जब विधानसभा चुनाव इतने करीब हों, तो क्या यह सही कदम है कि पार्टी के शीर्ष नेता इतनी महत्वपूर्ण यात्रा से दूर रहें? इस सवाल पर कांग्रेस के अंदर ही मतभेद हैं।
कुछ कांग्रेस नेताओं का मानना है कि पार्टी को इस यात्रा का अधिकतम लाभ उठाना चाहिए था। यात्रा की शुरुआत और समापन को भव्य तरीके से मनाकर एक बड़ा संदेश दिया जा सकता था। मल्लिकार्जुन खरगे जैसे वरिष्ठ नेताओं को इस मौके का पूरा फायदा उठाना चाहिए था, ताकि पार्टी को उन मतदाताओं तक पहुंचने का मौका मिलता, जो अभी भी पार्टी की ओर आकर्षित हो सकते थे।
कांग्रेस की दिल्ली में मजबूत उपस्थिति
दिल्ली प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता डॉ. नरेश कुमार शर्मा का कहना है कि इस यात्रा से यह साफ हो गया कि दिल्ली की सभी 70 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस कार्यकर्ताओं की मजबूती कायम है। उनके मुताबिक, कांग्रेस का ऐतिहासिक प्रभाव, विशेषकर शीला दीक्षित के शासनकाल के बाद, अभी भी दिल्लीवासियों के मन में जीवित है। हालांकि अरविंद केजरीवाल ने बड़े वादे किए थे, लेकिन वे उन्हें पूरा नहीं कर पाए, और अब वे लोग कांग्रेस की ओर वापस आ रहे हैं।
यह यात्रा दिखाती है कि पार्टी के कार्यकर्ता इस बार दिल्ली की लड़ाई में दमदार तरीके से शामिल हैं और आने वाले चुनावों में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं।
मुस्लिम मतदाता और कांग्रेस का भविष्य
कांग्रेस को खासतौर पर दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं से बड़ी उम्मीदें हैं। पार्टी के एक पूर्व मुस्लिम विधायक का कहना है कि अब दिल्ली का बड़ा मुस्लिम वर्ग केवल कांग्रेस की ओर देख रहा है। कोरोना काल में कुछ घटनाओं ने मुसलमानों का केजरीवाल से विश्वास तोड़ा है। यदि कांग्रेस सही उम्मीदवारों को मैदान में उतारे, तो वह कम से कम सात से आठ सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है।
लेकिन कांग्रेस को यह जीत तभी मिल सकती है जब वह मुस्लिम मतदाताओं को यह भरोसा दिलाए कि पार्टी का उम्मीदवार भाजपा को हराने में सक्षम है। यदि पार्टी ने दबाव में आकर कमजोर उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा, तो फिर उसे निराशा का सामना भी हो सकता है।
कांग्रेस ने ‘दिल्ली न्याय यात्रा’ के जरिए दिल्ली में अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की कोशिश की, लेकिन गांधी परिवार के नेताओं का इस यात्रा से दूर रहना पार्टी की रणनीति पर सवाल उठाता है। क्या यह कांग्रेस की सोच समझकर बनाई गई योजना थी, या फिर यह उनकी रणनीतिक चूक थी? चाहे कुछ भी हो, कांग्रेस को अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए अधिक मेहनत और सक्रियता दिखानी होगी, खासतौर पर दिल्ली के मुस्लिम मतदाताओं के बीच। राहुल और प्रियंका गांधी को इस लड़ाई में शामिल करके ही कांग्रेस दिल्ली में अपनी ताकत फिर से स्थापित कर सकती है।